विश्व आदिवासी दिवस कब और क्यों मनाया जाता है | Latest News 2022
विश्व आदिवासी दिवस आबादी के अधिकारों को बढ़ावा देने और उनकी सुरक्षा के लिए हर वर्ष 9 अगस्त को विश्व के आदिवासी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है।
इस विश्व आदिवासी दिवस पर मैं आप सभी का अभिवादन करता हूं 9 अगस्त को दुनिया में हर जगह पर इस दिन को बहुत ही धुम धाम से मनाया जाता हैं ये विश्व आदिवासी दिवस सभी आदिवासियों को समर्पित है आदि टाइम से रह रहे और पहला सभ्य मानव आदिवासी ही होता है जो कि निरन्तर अपनी अस्मिता को बचाने के लिए संघर्षशील ही रहा है।
आज आदिवासी अपनी क्षमता, ज्ञान, न्याय, बुद्धि के बल पर सर्वाच्च अपना परचम भी लहरा रहा हैं चाहे वो अंतरिक्ष हो वायु, थल, जल सारे क्षेत्र में अपनी सेवा प्रदान भी कर रहा है। आज आदिवासि पुरा काल वाला आदिवासी बिलकुल नहीं है जो कि आदिमानव का जीवन जी रहा है नहीं आज वो आधुनिकता की रेस में कंधा से कंधा मिलकार ही चल रहा हैं।
हां मगर आज ऐसी भी आदिवासि जनजातियां है जो कि मुख्य समाज से अलग ही है उनकी संस्कृति बहुत ही अलग है। जेसे सोम्पेन, जारवा, सेटेनेलीज आदि। जो अपने समाज में किसी को प्रवेश भी नहीं देते है।
विश्व आदिवासी दिवस मनाने का कारण-
दोस्तों विश्व आदिवासी दिवस सारे राष्ट्र संघ की महासभा के साथ 1994 से शुरू किया गया था जिसका विशेष उदेष्य विश्व से सारे आदिवासियों को एक जुट कर के उनके अधिकारों और संस्कृति उनकी विविधता का भी सम्मान करने के लिए ही विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाता हैं।
इस आधुनिकता की वजह से आदिवासियों को मुख्य धारा में लाने की भी बात कही जाती है। आदिवासी बहुत पिछड़ा हुआ है ऐसा बता कर उनको आधुनिक और सभ्य बनाने के नाम पर उनकी बोली भाषाओं का भी नामोनिशान मिट गया है। आदिवासियों के पारंपरिक बोली को भाषा को दबंगई से बर्बर, जंगली और असभ्य बताकर उनको समाप्त भी कर दिया जा रहा है।
आदिवासी की भाषाएं सभी जगहों पर अल्पसंख्यक हैं। ओनली एक मात्र अपवाद दादरा और नगर हवेली हैं जहां पर भील का भी प्रयोग किय जाता है। लेकिन इसे शासकीय काम के योग्य बिलकुल भी नहीं माना गया है। एसे ही हालात मणिपुर, अण्डमान निकोबार, छत्तीसगढ मध्यप्रदेश, झारखंड जैसे आदिवासी काफी राज्य है।
आदिवासी की भाषा का उपयोग को राज्य का राजकीय भाषा बनाया जाने का भी प्रयास किया लेकिन उन पर विदेशी भाषा ने कब्जा भी कर लिया है। आप को ये जानकर हैरानी होगी कि लोकसभा के पटल पर 45 से भी ज्यादा रिपोर्ट रखा गया है जिस पर केंन्द्र और राज्य सरकार गंभीर नहीं होती है। और इतना ही नहीं इन भाषाओं को जानबूझकर संवैधानिक प्रावधानों से बाहर भी रखा गया।
बड़ी ही मुश्कील से सविधान की आठवीं अनुसुची में संथाली एवं बोड़ो आदिवासी भाषाएं को भी शामिल किया गया।अनुसूची में संथाली, सिंधी, नेपाली, बोड़ो मिताई,डोगरी संस्कृत भाषाओं को बोलने वालों का भी प्रतिशत 1 प्रतिशत से भी कम हैं जबकि भीली,गोंडी, टुलु, कुडुख,जैसे भाषाओं का भी प्रयोग के वालों की संख्या बड़ी मात्रा में हैं। लेकिन वो संविधान में शामिल बिलकुल नही किये गये है।
शिक्षा को आदिवासी भाषाओं के माध्यम के रूप में अपनाये जाने पर बहुत ही बहस भी चला है और ये चलता ही रहा है आप बताऐ कि क्या प्राथमिक शिक्षा स्थानीय भाषाओं में होनी चाहिए कि नहीं। हाल ही में कुछ राज्य जैसे छ्तीसगढ़ ने गोंडी और हलबी को प्राथमिक शिक्षा में सामिल ये अच्छी बात भी लगी।